गीता प्रेस, गोरखपुर >> श्रद्धा विश्वास और प्रेम श्रद्धा विश्वास और प्रेमजयदयाल गोयन्दका
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प्रस्तुत है तत्त्वचिन्तामणि का 5वाँ भाग श्रद्धा, विश्वास और प्रेम....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
श्री परमात्मने नमः
मनुष्य का मन प्रायः हर समय सांसारिक पदार्थों का चिन्तन करके अपने समय को
व्यर्थ नष्ट करता है किन्तु मनुष्य जन्म का समय बड़ा ही अमूल्य है इसलिये
अपने समय को एक क्षण भी व्यर्थ नष्ट न करके श्रद्धा और प्रेमपूर्वक भगवान
के नाम रूप का निष्काम भाव से नित्य, निरन्तर स्मरण करना चाहिये इसलिय समय
उससे बढ़कर आत्मा के लिये दूसरा और कोई भी साधन नहीं है।
एवं दुखी, अनाथ, आतुर तथा अन्य सम्पूर्ण प्राणियों को साक्षात् परमात्मा समझकर उनकी मन, तन, धन द्वारा मन दृष्टि से संयम पूर्वक निष्काम भाव से तत्परता और उत्साह के साथ सेवा करने से भी मनुष्य का शीघ्र कल्याण हो सकता हैं।
अतएव मनुष्य को हर समय भगवान के समय भगवान के नाम और रूप रूप को याद रखते हुए ही निष्काम भाव से शास्त्र निहित कर्म तत्परता के साथ करने की चेष्टा करनी चाहिये।
एवं दुखी, अनाथ, आतुर तथा अन्य सम्पूर्ण प्राणियों को साक्षात् परमात्मा समझकर उनकी मन, तन, धन द्वारा मन दृष्टि से संयम पूर्वक निष्काम भाव से तत्परता और उत्साह के साथ सेवा करने से भी मनुष्य का शीघ्र कल्याण हो सकता हैं।
अतएव मनुष्य को हर समय भगवान के समय भगवान के नाम और रूप रूप को याद रखते हुए ही निष्काम भाव से शास्त्र निहित कर्म तत्परता के साथ करने की चेष्टा करनी चाहिये।
निवेदक
श्रद्धा विश्वास और प्रेम
प्रश्न-भगवान और महात्मा पुरुषों के प्रभाव और गुणों को सुनकर भी श्रद्घा
विश्वास नहीं होता और उसके अनुसार तत्परता से चेष्टा नहीं होती-इसमें क्या
कारण है ?
उत्तर-भगवान के तथा महापुरुषों के प्रभाव और गुणों को सुनकर भी श्रद्धा नहीं होती- इसमें कारण है अन्तःकरण की मलिनता और तदनुकूल चेष्टा न होनेमें कारण है श्रद्घा का अभाव ! अन्तःकरण के अनुरूप ही श्रद्धा होती है। भगवान ने कहा है-
उत्तर-भगवान के तथा महापुरुषों के प्रभाव और गुणों को सुनकर भी श्रद्धा नहीं होती- इसमें कारण है अन्तःकरण की मलिनता और तदनुकूल चेष्टा न होनेमें कारण है श्रद्घा का अभाव ! अन्तःकरण के अनुरूप ही श्रद्धा होती है। भगवान ने कहा है-
सत्त्वानुरूप सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।
(गीता 17 । 3
‘हे भारत ! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तः करण के अनुरूप
होती
है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिये जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, वह
स्वयं भी वही है। अर्थात् जैसी जिसकी श्रद्धा है वैसा ही उसका स्वरूप
है।’
अन्तः करण की मलिनता दूर होने से ही उत्तम श्रद्धा होती है और श्रद्धा होने से ही तत्परता होती है।
अन्तः करण की मलिनता दूर होने से ही उत्तम श्रद्धा होती है और श्रद्धा होने से ही तत्परता होती है।
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः
(4 । 39)
अन्तःकरण की मलिनता दूर करने का उपाय इस समय सबसे बढ़कर भगवान के नामका जप
है। इसलिये कैसे भी हो- हठसे या प्रेमसे- नाम जप करता रहे। नाम-जपसे अन्तः
करण मलिनता नष्ट हो जायगी, उसमें सात्त्विक श्रद्धा उत्पन्न होगी और फिर
भगवान तथा महात्माओं आप ही श्रद्धा हो जायगी और उनके कथानुसार तत्परता से
चेष्टा होने लगेगी।
प्र० सत्संग करते हैं फिर भी मन जैसा होना चाहिये वैसा नहीं होता-इसमें क्या कारण है ?
उ०- इसमें भी सत्संग का प्रभाव न मानना एवं अन्तःकरण की मलिनता ही हेतु है। अन्तःकरण मलिन होने से सत्संग का रंग नहीं चढ़ता। मैला कपड़ा रंग में डुबोने पर उसमें रंग अच्छा नहीं चढ़ता। साफ होता है तो रंग अच्छा चढ़ता है। (प्रेम, आसक्ति, रुचि, राग- इन सबका अर्थ एक ही है।) पारस से लोहा छुआ देने से लोहा सोना बन जाता है- यह बात सत्य है; किन्तु बीच में यदि व्यवधान होता है तो वह सोना नहीं होता। इसी तरह महात्माओं के संग से रंग चढ़ता ही है, किन्तु यदि अविश्वास व्यवधान होता है तो नहीं चढ़ता। जिसको पूर्ण विश्वास होता है उसके रंग चढ़ता ही है।
भगवान् न्यायकारी हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वशक्तिमान् हैं, यह विश्वास हमारा हो जाय तो फिर हम एक भी पाप नहीं कर सकते। ईश्वर की सत्ता मान लेने से ही पाप का नाश हो जाता है। मानते हुए भी यदि पाप करते हैं तो यही समझना चाहिये कि किसी एक अंश में ही मानते हैं, पूरा विश्वास नहीं है। सरकार जिस कामसे प्रसन्न नहीं है यानी जो काम सरकार के प्रतिकूल है, उसे हम नहीं करते। यह सरकार तो सर्वव्यापक, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान भी नहीं है। परमात्मा सर्वज्ञ है, सब जगह हैं और सर्वसमर्थ हैं। जो कोई भी उन्हें सर्वज्ञ समझ लेता है उससे पाप नहीं हो सकते।
प्र०- जैसे पिता पुत्र को अनुचित काम से जबरन मना कर देता है वैसे ही ईश्वर को भी मना कर देना चाहिये। पर मना क्यों नहीं करता ?
उ०- मना करता है- महात्मा पुरुषोंद्वारा-मनके द्वारा-सब प्रकार से मना करता है। किन्तु ईश्वर ने जीवों को स्वतन्त्रता दे रखी है। इसलिये जीव परतन्त्र होनेपर भी स्वतन्त्र हैं। जैसे हमको बंदूक चलाने का लाइसेन्स है। हम राज्य कानूनों के हिसाब से ही बंदूक चला सकते हैं। कानून से बँधे हुए हैं। किन्तु फिर भी हम चाहे जिस किसीपर कानून के विरुद्ध भी चला तो सकते हैं न ? फिर चाहे दण्ड मिले। ठीक वही बात यहाँ भी है।
प्र०- जब कभी कोई बात एक-दो मिनटों के लिये समझ में आ जाती है तो वह ठहरती क्यों नहीं ? ईश्वर को उसे ठहरा देना चाहिये-इतनी तो मदद करनी चाहिये।
उ० भगवान से जो मदद चाहता है उसे मदद मिलती है। जो यह प्रार्थना करता है कि हे भगवान् ! मेरा मन निरन्तर भजन-ध्यान में लगा रहे तो उसे भगवान् मदद देते हैं। सामान्य मदद तो सभी को है किन्दु विशेष मदद जो चाहता है, उसे दी जाती है। इसलिये उनसे प्रार्थना करनी चाहिये जिससे कि वह स्थिति छूटे नहीं। जिसका ऐसा विश्वास होता कि मैं भगवान् की शरण हूँ-मेरी धारणाको दृढ़ और अन्तःकरण शुद्धि भगवान् ही करते हैं, उसकी हो जाती है। एक सज्जन चाहते हैं कि मैं अमुक आज्ञानुकूल चेष्टा करूँ, कभी-कभी कुछ चेष्टा करते भी हैं पर मौका पड़ने पर पीछे हट जाते हैं तो यही समझना चाहिये कि उसका इस बातमें पूरा विश्वास नहीं है कि चाहे प्राण भले ही चले जायँ इनकी आज्ञा ही पालनीय है। अगर भगवान में पूरा विश्वास करके भगवान् से मदद माँगे तो भगवान इसके लिये भी मदद दे सकते हैं।
प्र० श्रद्धा, प्रेम और दयापर कुछ विशेषरूप से कहिये।
उ०-ऐसा प्रतीत होता है कि मुझे कहने की आदत पड़ गयी है और आपलोगों को सुनने की। बार-बार कहा जाता है आप सुनते ही हैं। किन्तु जब तक बात समझ में नहीं आती, काम में नहीं लायी जाती, तबतक हमेशा ही नयी है और हमेशा ही बार-बार सुनने की जरूरत है।
बात है बड़ी अच्छी ! इसमें कुछ भी खर्ज नहीं होता। मूर्ख-से-मूर्ख भी इसे कर सकता है। इसमें बल की, बुद्धि की, धन की, जाति, वर्ण की कुलकी- किसीकी भी जरूरत नहीं है। यह साधनकाल में भी प्रत्यक्ष शान्ति देनेवाली है। फिर सुनकर भी यदि काममें नहीं लायी जाती है तो यही समझना चाहिये कि विश्वास की कमी है। संसार में जो प्रत्यक्ष में सुख शान्ति देनेवाली होती है उसको तो लोग करने को तैयार रहते हैं। फिर यह तो आदि, मध्य और अन्त सर्वत्र आनन्द देनेवाली है। अभी आरम्भ कीजिये, अभी शान्ति-आनन्द तैयार है। यह नहीं कि कोई घंटे-दो-घंटे बाद आनन्द मिलेगा।
बात यह है – प्रथम तो यह विश्वास कर लेना चाहिये कि परमात्मा दीखते नहीं- तब भी हैं और सब जगह हैं। जैसे प्रेम दीखता नहीं पर है- ऐसी झूठी कल्पना करके भी लोग भयभीत हो जाते हैं और दुखी हो जाते हैं। फिर सच्ची धारणा करने पर सुख और शान्ति प्रत्यक्ष मिलें इसमें तो कहना ही क्या है ? इसलिये परमात्मा न भी दीखें तो भी मान लेना चाहिये कि वे हैं- अवश्य हैं।
प्र० सत्संग करते हैं फिर भी मन जैसा होना चाहिये वैसा नहीं होता-इसमें क्या कारण है ?
उ०- इसमें भी सत्संग का प्रभाव न मानना एवं अन्तःकरण की मलिनता ही हेतु है। अन्तःकरण मलिन होने से सत्संग का रंग नहीं चढ़ता। मैला कपड़ा रंग में डुबोने पर उसमें रंग अच्छा नहीं चढ़ता। साफ होता है तो रंग अच्छा चढ़ता है। (प्रेम, आसक्ति, रुचि, राग- इन सबका अर्थ एक ही है।) पारस से लोहा छुआ देने से लोहा सोना बन जाता है- यह बात सत्य है; किन्तु बीच में यदि व्यवधान होता है तो वह सोना नहीं होता। इसी तरह महात्माओं के संग से रंग चढ़ता ही है, किन्तु यदि अविश्वास व्यवधान होता है तो नहीं चढ़ता। जिसको पूर्ण विश्वास होता है उसके रंग चढ़ता ही है।
भगवान् न्यायकारी हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वशक्तिमान् हैं, यह विश्वास हमारा हो जाय तो फिर हम एक भी पाप नहीं कर सकते। ईश्वर की सत्ता मान लेने से ही पाप का नाश हो जाता है। मानते हुए भी यदि पाप करते हैं तो यही समझना चाहिये कि किसी एक अंश में ही मानते हैं, पूरा विश्वास नहीं है। सरकार जिस कामसे प्रसन्न नहीं है यानी जो काम सरकार के प्रतिकूल है, उसे हम नहीं करते। यह सरकार तो सर्वव्यापक, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान भी नहीं है। परमात्मा सर्वज्ञ है, सब जगह हैं और सर्वसमर्थ हैं। जो कोई भी उन्हें सर्वज्ञ समझ लेता है उससे पाप नहीं हो सकते।
प्र०- जैसे पिता पुत्र को अनुचित काम से जबरन मना कर देता है वैसे ही ईश्वर को भी मना कर देना चाहिये। पर मना क्यों नहीं करता ?
उ०- मना करता है- महात्मा पुरुषोंद्वारा-मनके द्वारा-सब प्रकार से मना करता है। किन्तु ईश्वर ने जीवों को स्वतन्त्रता दे रखी है। इसलिये जीव परतन्त्र होनेपर भी स्वतन्त्र हैं। जैसे हमको बंदूक चलाने का लाइसेन्स है। हम राज्य कानूनों के हिसाब से ही बंदूक चला सकते हैं। कानून से बँधे हुए हैं। किन्तु फिर भी हम चाहे जिस किसीपर कानून के विरुद्ध भी चला तो सकते हैं न ? फिर चाहे दण्ड मिले। ठीक वही बात यहाँ भी है।
प्र०- जब कभी कोई बात एक-दो मिनटों के लिये समझ में आ जाती है तो वह ठहरती क्यों नहीं ? ईश्वर को उसे ठहरा देना चाहिये-इतनी तो मदद करनी चाहिये।
उ० भगवान से जो मदद चाहता है उसे मदद मिलती है। जो यह प्रार्थना करता है कि हे भगवान् ! मेरा मन निरन्तर भजन-ध्यान में लगा रहे तो उसे भगवान् मदद देते हैं। सामान्य मदद तो सभी को है किन्दु विशेष मदद जो चाहता है, उसे दी जाती है। इसलिये उनसे प्रार्थना करनी चाहिये जिससे कि वह स्थिति छूटे नहीं। जिसका ऐसा विश्वास होता कि मैं भगवान् की शरण हूँ-मेरी धारणाको दृढ़ और अन्तःकरण शुद्धि भगवान् ही करते हैं, उसकी हो जाती है। एक सज्जन चाहते हैं कि मैं अमुक आज्ञानुकूल चेष्टा करूँ, कभी-कभी कुछ चेष्टा करते भी हैं पर मौका पड़ने पर पीछे हट जाते हैं तो यही समझना चाहिये कि उसका इस बातमें पूरा विश्वास नहीं है कि चाहे प्राण भले ही चले जायँ इनकी आज्ञा ही पालनीय है। अगर भगवान में पूरा विश्वास करके भगवान् से मदद माँगे तो भगवान इसके लिये भी मदद दे सकते हैं।
प्र० श्रद्धा, प्रेम और दयापर कुछ विशेषरूप से कहिये।
उ०-ऐसा प्रतीत होता है कि मुझे कहने की आदत पड़ गयी है और आपलोगों को सुनने की। बार-बार कहा जाता है आप सुनते ही हैं। किन्तु जब तक बात समझ में नहीं आती, काम में नहीं लायी जाती, तबतक हमेशा ही नयी है और हमेशा ही बार-बार सुनने की जरूरत है।
बात है बड़ी अच्छी ! इसमें कुछ भी खर्ज नहीं होता। मूर्ख-से-मूर्ख भी इसे कर सकता है। इसमें बल की, बुद्धि की, धन की, जाति, वर्ण की कुलकी- किसीकी भी जरूरत नहीं है। यह साधनकाल में भी प्रत्यक्ष शान्ति देनेवाली है। फिर सुनकर भी यदि काममें नहीं लायी जाती है तो यही समझना चाहिये कि विश्वास की कमी है। संसार में जो प्रत्यक्ष में सुख शान्ति देनेवाली होती है उसको तो लोग करने को तैयार रहते हैं। फिर यह तो आदि, मध्य और अन्त सर्वत्र आनन्द देनेवाली है। अभी आरम्भ कीजिये, अभी शान्ति-आनन्द तैयार है। यह नहीं कि कोई घंटे-दो-घंटे बाद आनन्द मिलेगा।
बात यह है – प्रथम तो यह विश्वास कर लेना चाहिये कि परमात्मा दीखते नहीं- तब भी हैं और सब जगह हैं। जैसे प्रेम दीखता नहीं पर है- ऐसी झूठी कल्पना करके भी लोग भयभीत हो जाते हैं और दुखी हो जाते हैं। फिर सच्ची धारणा करने पर सुख और शान्ति प्रत्यक्ष मिलें इसमें तो कहना ही क्या है ? इसलिये परमात्मा न भी दीखें तो भी मान लेना चाहिये कि वे हैं- अवश्य हैं।
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